Friday, December 22, 2023

हिन्दी भावधारा की अनूठी ग़ज़लों का संग्रह: पतवार तुम्हारी यादें


हिन्दी ग़ज़लों में इस समय अच्छे रचनात्मक माहौल के साथ-साथ प्रयोगात्मकता भी बराबर देखी जा रही है। जहाँ कुछ ग़ज़लकार हिन्दी छन्दों में ग़ज़ल कहने का अभ्यास कर रहे हैं, वहीं कुछ तत्समनिष्ठ शब्दावली में ग़ज़ल वाली बात लाने के लिए प्रयासरत हैं। हालाँकि हिन्दी ग़ज़ल की भाषा हमारे देश और समय के आम आदमी की बोलचाल की भाषा सर्वमान्य है और छन्द भी फ़ारसी की बहरें लेकिन शिल्प, कथ्य और डिक्शन को लेकर प्रयोग लगातार होते रहने चाहिए। प्रयोग किसी भी विधा अथवा साहित्य के लिए कुछ न कुछ नवाचार की गुंजाइश पैदा करते हैं।

जोधपुर (राज०) के छन्द शास्त्री और एक मधुर ग़ज़लकार भाई महावीर सिंह 'दिवाकर' अपनी ग़ज़लों में लगातार प्रयोग करते दिखते हैं। जोधपुर में निवास करते समय सालभर में इन्हें जानने का सुअवसर मुझे मिला है। उसी दरमियान ग़ज़ल के लिए इनकी दीवानगी और समर्पण ने मुझे बहुत प्रभावित किया था। लगभग उसी समय से इनकी बहुत सादे अंदाज़ में कही गयी ग्रामीण परिवेश की ग़ज़लें मुझे इनका सबल पक्ष लगती रही हैं। लेकिन महावीर जी ने अपनी ग़ज़लों में लगातार सफल प्रयोग किये और हिन्दी ग़ज़ल के लिए बहुत सारी संभावनाएँ निर्मित कीं, जिन पर विस्तार से बात की जा सकती है।
फ़िलहाल हम उनके दूसरे प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह पतवार तुम्हारी यादें   की चर्चा करेंगे। यह पुस्तक हिन्दी शिक्षण संस्थान, जोधपुर से वर्ष 2023 में आयी है। इसे राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा आंशिक सहयोग भी प्रदान किया गया है। संग्रह की एक ख़ास बात यह भी है कि अपने पहले संग्रह की तरह महावीर जी ने इसमें भी केवल फ़ेलुन के रुक्नों की बहरों यानी बह्रे-मीर पर आधारित ग़ज़लों को ही सम्मिलित किया है। इस तरह की बहरों में इन्हें आरम्भ से ही विशेष रूचि रही है। इस संग्रह में अनेक ऐसी ख़ासियतें हैं, जो ध्यान खींचती हैं। हम एक-एक कर कुछ बिंदुओं पर बात करते हैं।

मुझे इनकी ग़ज़लों में कहन की सादगी सबसे बड़ी विशेषता हमेशा से नज़र आती रही है। ये बड़ी-बड़ी गूढ़ बातें बहुत सहजता के साथ सरसता बनाए रखते हुए कह जाते हैं। यह शायद इसलिए संभव हो कि इनका स्वभाव भी बहुत सरल और सादा है। घुमाव-फिराव या बनावट इनके व्यक्तित्व से बहुत दूर है। एक सामान्य नौकरीपेशा आदमी हैं, जिनके यहाँ साधारण भारतीय परिवार की झलक देखी जा सकती है। 'सादा जीवन, उच्च विचार' का सटीक उदाहरण है इनका परिवार। कुछ इसी कारण इनके शेर सरल और सहज होते हैं।

एक परेवा नभ पर है
जाग अहेरी अवसर है
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नस्ल न देखो, रंग न देखो, जात न देखो यारी में
दिल को देखो, ओछी कोई बात न देखो यारी में
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गर तेरा गुणगान न करता, गीत अपावन रह जाता
प्रेम न होता तुझसे तो सब वंदन-पूजन रह जाता
तेरी मीठी यादें मेरे जीवनभर की पूँजी हैं
मन-गुल्लक में इनको न भरता मैं तो निर्धन रह जाता

इनकी ग़ज़लों में भारतीय परिवेश उभरकर आता है। खैराड़ अंचल की उपज महावीर सिंह गाँव और ग्रामीण परिवेश से बहुत गहराई से जुड़े रहे हैं। घर-परिवार, रिश्ते-नाते, उत्सव-त्योहार, संस्कार-सत्कार आदि इनकी ग़ज़लों में बहुत स्वाभाविकता के साथ बने रहते हैं। प्रकृति इनके यहाँ सहचर की भांति उपस्थित मिलती है। मंदिर, पूजन, पेड़-पंछी, रीति-रिवाज़, घर-आँगन ये सब इनकी ग़ज़लों में एक ऐसा परिवेश रचते हैं कि पढ़ते समय हमें अपने सदियों के परम्परागत जीवन की झलक साफ़-साफ़ दिखती है।

उजला-श्याम हमारे भीतर
रावण-राम हमारे भीतर
काशी-मथुरा, काबा-मक्का
चारों धाम हमारे भीतर
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संभव है इस सच से ठेस लगे श्रद्धा को
बीत गया है राशन ही उपवास नहीं है
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टूटा छप्पर, सर पर कर्ज़ा, तिस पर बड़की का गौना
है अम्बार समस्याओं का तू हल बनकर आना रामा
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व्रत उपवास हुए दादी के साथ विदा|
त्योहारों पर रौनक छाई रहती थी

इनकी ग़ज़लों का शब्दकोश भी पाठक को बहुत अपनेपन का आभास कराता है। बहुत सामान्य शब्दावली में हमारे रोज़मर्रा के जीवन में प्रयुक्त होने वाले शब्दों के साथ-साथ ठेठ ग्रामीण जीवन के शब्द तथा तद्भव-देशज शब्द इनकी ग़ज़लों में एक अलग ही मिठास पैदा करते हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि ऐसा ये बिलकुल भी जानबूझकर नहीं करते। स्वाभाविकता के साथ उपस्थित इस शब्दावली की नैसर्गिकता ही प्रभावित करती है। इनके ग़ज़ल सृजन की यह ख़ासियत इन्हें लोक सम्पृक्ता के पास लेकर जाती है।

मन में दबकर रह जाती हैं मन की बातें कितनी ही
तोरण-द्वारे से लौट आती हैं बारातें कितनी ही
पथराये नैनों में इक दिन जोत जगेगी दर्शन की
धूनी रमकर जाग रही हैं जोगन रातें कितनी ही
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पीड़ा के परिणय में गीत-ग़ज़ल-कविता आये
पीहर की टोली भरने भावों का भात चली 
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 डोरा-टोना जंतर-तंतर कर दे कोई
पागल प्रेमी की गत बेह्तर कर दे कोई

जैसा मैंने ऊपर कहा कि प्रयोग हमेशा नवाचार की गुंजाइश पैदा करते हैं। महावीर जी के शिल्पगत से लेकर भाषागत प्रयोग इनकी ग़ज़लों में नव्यता की कई गुंजाइशें पैदा कराते हैं। ऊपर के एक शेर में आपने 'भावों का भात भरा जाना' पढ़ा। इन शेरों में 'आस पुराना', 'सोने के हथफूल और लाख का कंगन', 'मन से मन की छत का लगना' और 'ताक-धिना-धिन' पर ध्यान दीजिए। मुहावरे, प्रतीक, बिम्ब और तुक हर स्तर पर नवीनता दृष्टिगत होती है।

आस पुराओ मेरे अनुरागी मन की
इन नैनों को देकर दर्शन आ जाओ
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नेह निवेदन ठुकरा देना
तुम मेरा मन ठुकरा देना
सोने के हथफूल मिले तो
लाख का कंगन ठुकरा देना
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जोगन जैसी गत लागी
मुझको पी की लत लागी
एक हुए आँगन तन के
मन से मन की छत लागी
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इस जीवन की ताक-धिना-धिन आधी
मैं तुझ बिन आधा तू मुझ बिन आधी

महावीर सिंह 'दिवाकर' जी के यहाँ अपना समय और उसका संगत-विसंगत पूरी धूमधाम के साथ पाया जाता है। अगर यह कहा जाए कि इनकी ग़ज़लगोई कल्पनाशीलता की बजाय यथार्थ में विचरती है तो ग़लत न होगा। जीवन का यथार्थ इनके यहाँ लगातार उपस्थित रहता है और कल्पना उतनी, जितना आटे में नमक। ये अपने समय के वर्तमान पर बारीक नज़र रखते हैं और उसे अपनी ग़ज़ल के शेरों में भी बड़ी समझदारी व ईमानदारी से दर्ज करते हैं।
नीचे के कुछ शेर देखिए, जो दुनिया, राजनीति तथा धर्म के अगुवाओं की सच्चाई सामने रखते हैं। फिर अंत के दो शेर आपसी सामंजस्य को बनाए रखने का आह्वान करते हैं। यहाँ इन शेरों में कटाक्ष भी है, जीवन दर्शन भी और जीवन का सच भी।

सच को सूली पर टांगा है इस दुनिया ने
राम के हिस्से किस युग में वनवास नहीं है
अधरों पर बंशी, उँगली में चक्र सुदर्शन
इक रण भी है जीवन केवल रास नहीं है
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ख़्वाब उजाले का आधा ही रक्खा उसने
दीपक लाया साथ धुँआ भी लेकर आया
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कर में माला घूम रही है
उर में माला घूम रही है
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प्यार मिटा तो केवल हिंसा रह जाएगी
चीख़ रहा है पन्ना-पन्ना अख़बारों का
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शर्बत जैसा मीठा होगा जीवन का हर पल
इक-दूजे में घुलकर हमको समरस होना है

इनके यहाँ प्रेम और ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण भी आपको भरपूर मिलेगा। पूर्ण समर्पण के बाद ही प्रेम का असली रूप खिलता है और पूर्ण प्रेम के बाद ही समर्पण उपजता है। कभी-कभी ईष्ट प्रेम में समाविष्ट हो जाता है। कुछ-कुछ ऐसा होता यहाँ दिखता है। यहाँ प्रेम अपने बहुत गाढ़े रूप में मौजूद है। गाढ़ा और परिपक्व प्रेम, जो केवल मौज के लिए नहीं बल्कि गुज़र-बसर के लिए ज़रूरी है। इनकी एक पूरी की पूरी ग़ज़ल 'रिमझिम तेरी मम्मी से' तो हमारे गृहस्थ जीवन की अद्भुत झाँकी बन पड़ी है। इस ग़ज़ल के कुछ शेर देखिए पहले और फिर कुछ और शेर-

झगड़ा-गुस्सा और अदावत रिमझिम तेरी मम्मी से
करता हूँ मैं फिर भी मुहब्बत रिमझिम तेरी मम्मी से
तू भी ख़र्चीली, मैं भी ख़र्चीला उस पर वेतन कम
फिर भी अपने घर में बरकत रिमझिम तेरी मम्मी से
सुख का स्वाद बढ़ा देती है संगत तेरी मम्मी की
दुख में मिलती दिल को राहत रिमझिम तेरी मम्मी से
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तूने छूकर चमकाया है
कंकर होकर इतराता हूँ
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इक तेरे होने से पत्थर का परकोटा
एक मकान नहीं रहता घर हो जाता है
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तेरे पथ की धूल मिले तो जीवन चमके
क्या करना है मुझको नभ के इन तारों का

इनके लेखन की एक विशेषता और मुझे प्रभावित करती है कि ये अपनी ग़ज़लों के मक़ते में तख़ल्लुस का बहुत अच्छा प्रयोग करते हैं। दिवाकर तख़ल्लुस अमूमन एक उम्मीद होता है और अनेक जगहों पर कटाक्ष लेकर आता है। कई जगहों पर ये श्लेष अलंकार की भी छटा बिखेरता दिखता है। इनके ऐसे ही कुछ मक़ते देखिए-

भिड़ जाता है अँधियारे से, आँधी से भी
रातों में हर दीप, दिवाकर हो जाता है
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एक दिवाकर अम्बर पर है इक दीपक है धरती पर
दोनों जलते हैं फिर भी अँधियारे की है मात कहाँ
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यार दिवाकर ऐसा क्यों
जीत गयी शब, हारा दिन
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दुष्ट दिवाकर खल कामी है इस जीवन में तो राघव
पिछले जन्मों के सत्कर्मों का फल बनकर आ रामा

ग़ज़ल संग्रह पतवार तुम्हारी यादें    हिन्दी भावधारा की बहुत अच्छी ग़ज़लों का संकलन बन पड़ा है। इसकी ग़ज़लों में बहुत-सी ऐसी विशेषताएँ हैं जो इसे एक संग्रहणीय संग्रह बनाती है तथा ग़ज़ल के अध्ययनकर्ताओं का ध्यान अपनी ओर खींचती है। आशा है इस संग्रह को हिन्दी ग़ज़ल जगत और पाठक ज़रूर सराहेंगे।



समीक्ष्य पुस्तक- पतवार तुम्हारी यादें
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- महावीर सिंह 'दिवाकर'
प्रकाशन- हिन्दी शिक्षण संस्थान, जोधपुर
संस्करण- प्रथम, 2023
मूल्य- 250 रुपये (सज़िल्द)
पृष्ठ- 112