Tuesday, August 23, 2016

जीवन के विविध पहलुओं और सामाजिक सरोकारों को आवाज़ देती एक कृति: पीपल बिछोह में





एक अच्छा साहित्यकार भावनाओं को सीमाओं में नहीं बाँधता बल्कि अपने मस्तिष्क में उमड़ते-घुमड़ते भावों को कलम का सहारा दे, काग़ज़ की ज़मीन पर उतरने में सहयोग करता है। फिर वे भाव चाहे किसी भी स्वरूप में हों, जैसे- गीत, कविता, कथा या कोई भी अन्य विधा।
भावों की आमद सहज होती है, वे किसी भी रचनाकार की क़लम को ज़रिया बना, अपना स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। इनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करने या इन्हें किन्हीं निश्चित साँचों में फिट करने की कोशिशों में ये अक्सर अपना असर खो बैठते हैं, इसलिए इन्हें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़, जैसे ये चाहें, जिस रूप में चाहें, स्वतः आने दिया जाना चाहिए।
अभी पिछले दिनों 'पीपल बिछोह में' पुस्तक मिली, जो अलग-अलग विधाओं की काव्य रचनाओं का संकलन है। पुस्तक में गीत, नवगीत, गीतिका, दोहा आदि विधाओं के साथ-साथ छंदबद्ध व छंद मुक्त कविताएँ भी शामिल हैं। अलग-अलग विधाओं की रचनाओं में अपनी बातें कहती ये पुस्तक रचनाकार के बहुआयामी सृजक होने का प्रमाण है। पुस्तक का शीर्षक 'पीपल बिछोह में' बहुत आकर्षक और मन को दो पल रोकने वाला शीर्षक है।
यह कृति एक उम्रदराज़ रचनाकार की तीसरी किताब है, इससे पहले इनकी दो किताबें 'साँस साँस जीवन' और 'पावन धार गंगा है' प्रकाशित हो चुकी हैं।
'पीपल बिछोह में' नौकरी के सिलसिले में अपने गाँव से दूर रहे एक संवेदनशील मन की अभिव्यक्ति है, जो सालों अपने गाँव, अपने परिवेश, अपने परिवार से दूर रहने के बावजूद भी इन सबसे विलग नहीं हो पाया।
खोया कहीं बचपन
तरुणाई के मोह में
छोड़ दिया गाँव तभी
जीविका की टोह में
भटके आकुल अनाथ मन
पीपल बिछोह में!
गीत का मुखड़ा इस बात की गवाही है कि यह आकुल मन एक उम्र बीत जाने के बावजूद भी अपने गाँव की मिट्टी की महक, पीपल का प्यार और बचपन की स्मृतियाँ नहीं भुला पाया है।
इस गीत में पुस्तक के रचनाकार ओमप्रकाश नौटियाल जी ने ग्रामीण परिवेश का सजीव चित्रण करने के साथ ही ग्रामवासियों और पीपल के पेड़ के जुड़ाव को बहुत सुंदर तरीक़े से शब्दबद्ध किया है।
पुस्तक में कुल 66 काव्य रचनाओं में नौटियाल जी ने जीवन के विविध पहलुओं के साथ विभिन्न सामाजिक सरोकारों को आवाज़ दी है। नौटियाल जी के लेखन में समकालीनता और सामाजिक सरोकार बहुत मजबूती से उपस्थित रहते हैं और यही वजह है मेरे इनके लेखन से प्रभावित होने की।
पर्वतीय प्रदेश उत्तराखण्ड के देहरादून शहर में पले-बढे नौटियाल जी की कविताओं में प्रकृति-प्रेम मुखर होकर बोलता है। फिर चाहे वह 'पीपल बिछोह में' गीत हो, 'माटी की सौंधी महक' नाम से दोहावली हो या 'पर्वतवासी' कविता हो, सबमें प्रकृति का बारीकी से विश्लेषण हुआ है।
'पर्वतवासी' कविता में पहाड़ों के शांत, सुरम्य वातावरण का प्रभावी वर्णन और प्राकृतिक सौन्दर्य का सजीव अंकन मिलता है-
सभी कुछ दृष्टव्य स्पष्ट यहाँ
मानो खुली एक मुट्ठी है
जीवन है शांत, सरल, सादा
ना कोई उलझी गुत्थी है
है सुरम्य सौन्दर्य प्रकृति का
मनभावन मौन इशारे हैं
जीवन की परिभाषा इनसे
अंदाज़ यहाँ के न्यारे हैं

कितना सरल, सादा और मनभावन चित्रण है।
गोरैया के लुप्त होने की चिंता ने भी इनके प्रकृति-प्रेमी मन को व्याकुल किया और उसके गायब होने को हमसे रूठ जाने की उपमा देते हुए 'कहाँ गयी गोरैया' कविता का सृजन करवा लिया। आज के स्वार्थी परिवेश में न तो हमारे घरों में पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था रही, न ही हमने इनके आसरे 'पेड़ों' को रहने दिया, फिर इन बेज़ुबानों का हमसे रूठने का हक़ बनता ही है।
शहर शहर में ढूँढे गाँव/ गाँव गाँव में बाग
मिला न कोई नीम/ न ही खेत खलिहान
दिखे न बिखरे दाने/ कहाँ जाए भूख मिटाने?
न वृक्षों पर जल की हांडी/ न कहीं ताल-तलैया
रूठ गयी गोरैया!!
पुस्तक में एक कविता 'पृथ्वी और नभ' में पृथ्वी और आकाश के माध्यम से मर्यादित प्रेम की बहुत सुंदर प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हुई है। पूरी कविता को सिर्फ प्रेम की परिभाषा भी कह सकते हैं। यह एक परिपक्व रचना है। 'संध्या और भोर के समय आकाश द्वारा लालिमा से पृथ्वी की मांग भरा जाना' कितना सुंदर बिम्ब लिया गया है।
प्रेम का यह है/ सात्विक स्वरूप
आकाशीय गरिमा का प्रतीक
मिलन की व्यग्रता नहीं
चाह केवल
अपलक निहारने की
अपनी लालिमा से
भोर और संध्या में
मांग भरना पृथ्वी की
'बतियाने का मन होने पर धरती और आकाश रूपी दोनों प्रेमी क्षितिज पर लोगों की निगाहों से दूर कुछ घड़ी को मिल लेते हैं' क्षितिज का प्रयोग करते हुए कितना मनोहर मानवीकरण हुआ है। यह रचना पुस्तक की श्रेष्ठ रचना है।
प्रकृति चित्रण के अलावा भी पुस्तक में बहुत से विषयों पर रचनाएँ हैं। समकालीन घटनाओं पर भी कुछ कविताएँ दृष्टव्य हैं। आतंकवाद और आंतकवादी हमलों पर आधारित एक कविता में नौटियाल जी कहते हैं-
कोई धर्म ग्रंथ हो/ या फिर गुरू पंथ हो
सभी का निचोड़ यही/ श्रद्धा प्रेम अनंत हो
मस्तिष्क में कौन फिर
विष विचार टांग गया
दरिंदा दरिंदगी की
सीमा हर लाँघ गया
इसी तरह की एक कविता 'जीवन में केवल प्यार रहे' में जीवन में प्रेम के महत्त्व को स्पष्ट कर प्रेम से जीने और नफ़रत से दूर रहने का संदेश दिया गया है। इस कविता में कवि युवाओं को हर तरह की हिंसा को छोड़ सिर्फ प्रेमभाव से राष्ट्र निर्माण करने की सीख देता है।
देश में स्त्रियों के प्रति अमानवीय व्यवहार और भेदभाव से आहत हो नौटियाल जी एक कविता 'मैं कन्या' में अजन्मी बच्ची से लेकर विवाहिता युवती तक हर पल दहशत में जी रही नारी की मानसिकता का दयनीय चित्रण किया है।
'पेट के लिये' कविता में भी ये एक मजदूर के जीवन की भयावह स्थिति को हमारे सामने रखते हैं। 'पेट के लिए उसे कमर बाँधनी ही पड़ेगी और यही उसकी योग साधना है' इस भाव के साथ कविता में बहुत गहरा कटाक्ष किया गया है। सही भी है, जब तक पेट की आग नहीं बुझती, उसके अलावा इंसान को कुछ भी नहीं सूझता।
'बदलेगा देश' कविता के माध्यम से देश में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद की गयी है और साथ ही उस बदलाव के लिए रचना में कुछ उपाय भी बतलाये गये हैं।
पुस्तक में एक और महत्त्वपूर्ण कविता है 'समय की सापेक्षता' जो समय को उम्र के अलग-अलग कोणों से देखती एक बहुत अच्छी रचना है। महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन के समय की सापेक्षता के सिद्धांत को आधार में रख कवि ने बताया है कि विभिन्न अवस्थाओं में मनुष्य का जीवन के प्रति कैसा नजरिया रहता है।
एक कविता 'बजटीय सौन्दर्य' में बजट के पक्ष-विपक्ष में अलग-अलग मतों का सफल विवेचन हुआ है। इस व्यंग्यात्मक कविता में कवि नौटियाल जी ने बजट से बड़ा ही रोचक सवाल किया है। लेकिन साथ ही 'सौन्दर्य बस देखने वाली आँखों में होता है' कहकर व्यंग्य के ज़रिये तमाम उत्सुकताओं को विराम भी दे गये हैं।
एक गीत 'भीतर से भी राम' में आज के विकट युग में जहाँ हर ओर सिर्फ स्वार्थ का बोलबाला है, ऐसे में भी कवि किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में है जो भीतर और बाहर दोनों जगह से भगवान राम की तरह हो। इस गीत के माध्यम से रचनाकार ने अप्रत्यक्ष रूप से भगवान राम के अनेक गुणों का वर्णन किया है। हालाँकि नौटियाल जी यह भी जानते हैं कि इस कलियुग में श्री राम के जैसा चरित्र मिलना असंभव है फिर भी एक साहित्यकार उम्मीद नहीं हारना चाहता।
पुस्तक में पिता-माता को याद करते हुए क्रमशः 'खेवनहार पिता' और 'आँचल का अहसास' शीर्षक की अच्छी कविताएँ हैं। पिता का होना जहाँ बरगद की छाँव समान हैं, वहीँ माँ का होना जीवन में हरियाली के होने की तरह है।
इन सबके अलावा पुस्तक में हिंदी, बाल मजदूरी, होली, राखी, नव वर्ष, दीपावली, जन्माष्टमी, वेलेंटाइन डे और ऐसे ही बहुत से विषयों पर रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं।
अलग-अलग विषयों और अलग-अलग विधाओं को अपने में समेटे यह पुस्तक एक अच्छी कृति बन पड़ी है। लेकिन कहीं-कहीं रचनाओं में परिपक्वता की कमियाँ भी महसूस हुईं। गीत तथा दोहे छंदों में होने के बावजूद भी अपने प्रवाह में बाधित हो रहे हैं। कठिन तत्सम शब्दों के आधिक्य से भी कई स्थानों पर बोझिलता आई है।
प्रस्तुत पुस्तक में हमारे आसपास की कई चीज़ों व कई मुद्दों पर अच्छी अच्छी रचनाएँ हैं, जो पुस्तक को पठनीय बनातीं हैं। एक सुंदर व सफल काव्य संकलन के लिए इसके रचनाकार ओमप्रकाश नौटियाल जी को हमारे समय के चर्चित कवि डॉ. कुंअर बेचैन के पुस्तक की भूमिका में लिखे इन शब्दों के साथ बहुत बहुत बधाईयाँ और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ-
"शाश्वत होते हुए भी समसामयिक और समसामयिक होते हुए भी शाश्वत हैं नौटियाल जी की कविताएँ......"
समीक्ष्य पुस्तक- पीपल बिछोह में (काव्य संग्रह)
रचनाकार- श्री ओमप्रकाश नौटियाल
संस्करण- प्रथम, 2016
प्रकाशन- शुभांजलि प्रकाशन, कानपुर (उ.प्र.)

Friday, August 5, 2016

साझे नभ के कोने में चहचहाते हायकु के परिंदे






हायकु जापानी साहित्य की एक सुप्रसिद्ध विधा है, जो अब विश्व भर के साहित्य में स्वीकृत है। तीन पंक्तियों और कुल सत्रह (5+7+5) वर्णों की यह रचना एक पूर्ण कविता होती है। तीनों पंक्तियों में एक एक शब्द इस तरह जड़ा जाता है कि कहीं से भी किसी शब्द को हटा देने से समग्र रचना की सुंदरता ख़त्म हो जाती है। हायकु की तीनों पंक्तियाँ पृथक होती हैं और अपनी अपनी बात पूरी करती हैं। जापानी साहित्य में यह विधा प्रकृतिपरक विषयों के लिए मशहूर है लेकिन हिंदी में इस तरह की कोई बाध्यता नहीं है। हिंदी में हायकु रचनाकार इसकी शिल्पगत सीमाओं में रहते हुए किसी भी विषय पर अपनी संवेदनाएँ उकेर सकता है।
भारत को हायकु कविता से परिचित कराने का श्रेय कविवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर को जाता है और हिंदी में इसकी प्रथम चर्चा अज्ञेय द्वारा की गयी मानी जाती है। उन्होंने छठवें दशक में ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ (1959) में अनेक हायकुनुमा छोटी-छोटी रचनाएँ लिखीं हैं, जो हायकु के बहुत निकट हैं। उसके बाद कई दशकों से अनेक हिंदी रचनाकार इस छोटी सी सशक्त विधा में अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे हैं। हायकु विधा की अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं।
इसी कड़ी में पिछले दिनों विभा रानी श्रीवास्तव जी द्वारा सम्पादित हायकु के नव हस्ताक्षरों की पुस्तक ‘साझा नभ का कोना’ प्रकाशित हुई है। पुस्तक में कुल 26 रचनाकारों के परिचय सहित उनकी कुछ हायकु रचनाएँ शामिल हैं। सभी रचनाकारों द्वारा अलग अलग तय विषयों पर अपनी कलम चलाते हुए बहुत सुंदर रचनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं।
इलाहाबाद के रत्नाकर प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में विभिन्न सामाजिक सरोकारों के विषयों पर अच्छी रचनाएँ देखने को मिलती हैं। 
दिल में दया और आँखों में हया लेकर सारे जग को अपना बनाने की ‘ट्रिक’ समझाते कपिल कूमार जैन का बहुत सुंदर हायकु देखें-
दिल में दया
आँखों में जो हो हया
जग तुम्हारा
एक अन्य हायकु में वे रात, सपनों और सूरज का मानवीकरण करते हुए कहते हैं-
रात ने बोई
सपनों की फसल
उगा सूरज
इसी प्रकार कैलाश भल्ला जी अपने एक हायकु में रहस्यवाद का सहारा लेते हुए मन की प्यास पर लिखते हैं-
मन भटके
ज्यों पावे त्यों बढ़े
तृषा न मिटे
‘ओस’ विषय पर वे बहुत सुंदर कल्पना करते हुए वे कहते हैं-
ठण्ड के मारे
मेघ छोड़ के भागे
ओस के पारे
तुकाराम खिल्लारे जी धरती, आकाश और जीवों के एक परिवार की कल्पना कर पिता और माँ के उत्तरदायित्व को कितनी मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करते हैं, देखें-
नभ बैरागी
झंझावात सहती
जीव संग भू
बेजान बाँसुरी के श्वासों से स्पर्श करते ही उत्पन्न मधुर ध्वनी का चित्रण करते हुए धर्मेन्द्र कूमार पाण्डेय जी कहते हैं-
श्वासों का स्पर्श
गाती बेजान बंशी
मधुर ध्वनि
हमारे दौर भी विडंबना को शब्द देता पवन बत्रा जी का हायकु क्या कुछ कह जाता है, देखिये-
बेख़ौफ़ रहे
आज के अपराधी
पीड़ित सहे

इसी तरह कटते पेड़ों की व्यथा को अपनी हायकु रचना का स्वर देते पंकज जोशी एक महत्त्वपूर्ण सरोकार को हमारे सामने रखते हैं-
चीखते पेड़
प्रार्थना इंसानों से
छोड़ो काटना
प्रबोध मिश्र ‘हितैषी’ जी अपनी रचना में दार्शनिकता का समावेश करते हुए जीवन का एक सूत्र समझाते हुए दीखते हैं-
धूप छाँव सा
ज़िंदगी का संगीत
प्रिय अप्रिय
सभी सामाजिक, धार्मिक संकीर्णता को परे रख बेटियों द्वारा हर क्षेत्र में झंडे गाड़ने के काम पर कलम चलाती प्रवीण मलिक लिखती हैं-
काट बेड़ियाँ
बेटी भरे उड़ान
बढ़ा दे मान
ओस की एक बूंद की तुलना साध्वी से करते हुए उस चित्र का बहुत सटीक चित्रण करते हुए प्रीति दक्ष जी अपनी हायकु रचना में कहती हैं-
ओस की बूंद
कमलदल बैठी
शांत साध्वी सी
पुस्तक में इसी तरह की अनेक सुंदर हायकु रचनाएँ आपको आकर्षित करेगी। साथ ही संपादक सहित कुछ अनुभवी हायकु रचनाकारों के वक्तव्य भी पाठकों की जानकारी को और समृद्ध करेंगे। पेपरबैक संस्करण में पुस्तक का प्रकाशन कार्य भी बहुत सुंदर ढंग से हुआ है। शीर्षक को सार्थकता देता पद्मसंभव श्रीवास्तव का आवरण चित्र भी मन को लुभाने वाला है।
एक अच्छी पुस्तक के प्रकाशन के लिए संपादक, प्रकाशक और सभी सम्मिलित रचनाकार बधाई के पात्र हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- साझा नभ का कोना
विधा- हायकु संग्रह (साझा संकलन)
संपादक- विभा रानी श्रीवास्तव
संस्करण- प्रथम, 2015 पेपरबैक
मूल्य- 125 रूपये
प्रकाशन- रत्नाकर प्रकाशन, इलाहाबाद

Thursday, July 21, 2016

बहुत शालीनता से मन-मस्तिष्क पर दस्तक देता कविता संग्रह: किनारे की चट्टान




"किनारे की चट्टान लहरों के उन्माद को बड़ी शालीनता से सहती है और अपने धैर्य से उद्दंडता को करारा जवाब देती है।"
यह पंक्ति किसी बहुत बड़े दार्शनिक का कथन नहीं, बल्कि एक युवा कवि की कविता का भावार्थ है। इसी तरह की अनेक पंक्तियाँ हमें इस कवि की पहली पुस्तक 'किनारे की चट्टान' में पढ़ने को मिलती हैं। महादेव, सुंदरनगर (हि.प्र.) के रहने वाले पवन चौहान की यह पुस्तक जैसे ही हमारे हाथ में आती है, तो हमारी नज़र इसके आवरण पृष्ठ पर लिखी इन पंक्तियों पर ज़रूर पड़ती है-

किनारे पर बैठा कवि देखता है सब
लहरों का उन्माद,
चट्टान की सहनशीलता,
समुद्र से टकराने का हौसला,
उसकी दृढ़ता, आत्मविश्वास
वह भी होना चाहता है चट्टान
किनारे वाली चट्टान

ये कुछेक पंक्तियाँ किसी भी हारे हुए योद्धा अथवा निराश व्यक्ति के अंतर्मन में पुन: संघर्ष का जज़्बा भर सकती हैं। जीने की उम्मीद जगा सकती हैं, मुश्किलों से लड़ने का हौसला दे सकती हैं।

कविता की अपनी पहली ही पुस्तक में पवन चौहान जी जीवनानुभवों से पगी ऐसी ही अनेक पंक्तियाँ लेकर हमारे सम्मुख उपस्थित होते हैं और बहुत शालीनता से हमारे मन-मस्तिष्क पर दस्तक दे जाते हैं।
इस पुस्तक को पढ़ते हुए आप कई बार हैरान होंगे क्योंकि यह कवि अक्सर ऐसी बड़ी-बड़ी बातों को सहजता से आपके सामने कविता के रूप में परोस जाता है, जिसके बारे में आप अब तक सोच ही नहीं पाये होंगे।
अपनी पुस्तक में पहली ही कविता 'खेत की बाड़' के माध्यम से एक ग्रामीण क्षेत्र के परिवेश में घर में कोई नया कार्य होने पर परिवार के सदस्यों की मन:स्थिति का बड़ी बारीकी से यथार्थ चित्रण कर अपनी काव्य प्रतिभा का ज़बरदस्त परिचय दिया है। कुछ पंक्तियाँ देखें-

बाड़ लगने की ख़ुशी में
लाड़ी मेरी कहे बगैर ही
पिला रही है चाय बार बार
क्यूंकि अब नहीं चढ़नी पड़ेगी उसे
तीन मंज़िला घर की
थका देने वाली सीढ़ियाँ
वह सुखाएगी अब कपड़े इसी बाड़ पर

एक कविता 'चिम्मु' के द्वारा अपनी बेटी को याद करते हुए बड़े संवेदनशील तरीक़े से भावनाओं को कविता का जामा पहनाया गया है। कवि की बेटी घर से दूर है और उसे शहतूत के पेड़ पर लगने वाला फल, जिसे स्थानीय भाषा में 'चिम्मु' कहा जाता है, बहुत पसंद है। पेड़ पर चिम्मु के पक जाने पर अपनी बेटी को याद करते हुए कवि बहुत सुंदर तरीक़े से बेटी से जुड़ी भावनाएँ काग़ज़ पर उतारता है और उसे कविता में ढाल देता है।
आगे के क्रम में पवन चौहान जी एक कविता 'अरसा' में एक रचनाकार के 'शून्यकाल' की स्थिति को कविता में बाँध ले गये हैं। लम्बे समय तक क़लम ख़ामोश रहने पर कलमकार के मन में जो छटपटाहट होती है, उसे शब्द देने में वे पूरी तरह सफल हुए हैं। मेरे ख़याल में इस कविता का शीर्षक यदि 'कोई बोलती पगडण्डी' होता तो बेहतर लगता। कविता की कुछ पंक्तियाँ देखें-

बहुत अरसा हो गया
कलम से झरते उन शब्दों को भी
रचते रहते थे जो कुछ नया हमेशा
देते रहते थे साकार रूप
उन अनबुझी, अनछुई
हकीकत तलाशती कल्पनाओं को

'काफ़ल' नामक कविता में नीलू की माँ के माध्यम से पहाड़ी परिवेश में महिलाओं की जीवनचर्या से परिचय करवाने के साथ ही पहाड़ों में पैदा होने वाले एक फल काफ़ल के महत्त्व से भी बाख़ूबी परिचय करवाया है।
'खिलौना-2' कविता में पवन चौहान जी जीवन की वास्तविकता और कड़वे यथार्थ का परिचय करवाते हैं। 'यूज़' होने बाद उपेक्षित हुए व्यक्ति के अहसासों को कविता में अच्छी अभिव्यक्ति मिली है।
संग्रह की एक कविता 'सपने' अपने कार्यों के द्वारा प्रतिद्वंदियों को जवाब देने का सन्देश देती है, कवि के शब्दों में-

मैं गढ़ने लगा हूँ
फिर वही सपने
ढेरों सपने
पर नहीं बतियाता किसी से
पूरा हुआ मेरा सपना
दे देता है ख़ुद ही जवाब
और एक करारा तमाचा
मेरे ख़ास
दुश्मनों को

दूसरों को उपदेश देने से पहले अपने गिरेबान में झाँकने की बात कहती कविता 'कभी कभी' भी अच्छा असर छोड़ती है। दूसरों की बहुत सी ऐसी बातें होती हैं जो हमें ग़लत लगती हैं और कभी कभी गुस्सा भी दिलाती हैं, लेकिन जब कभी हम ख़ुद में झाँककर देखते हैं तो हमें ख़ुद में ही वो कमियाँ मुँह चिढ़ाती दिखती हैं और तब हमें ख़ुद से छिपने का स्थान भी नहीं मिलता।
संग्रह की एक बहुत प्रभावी कविता है 'माँ बकती है'। इस कविता के द्वारा कवि ने माँ के 'बकने' के कारणों का गहन विश्लेषण कर उसके ऐसा करने को सही ठहराया है। माँ के गुस्से का रहस्य जानकर कवि ने उनके साथ होने वाले ग़लत कामों पर माँ के चिढ़ने को सही ठहराया है।

घरों में कुत्ता पालना आज के दौर में 'स्टेटस सिम्बल' हो गया है। कविता 'शेरू' में कवि ने इसी 'परंपरा' के अलग-अलग पहलुओं से हमें अवगत कराया है।
पहाड़ों का दर्द समेटे एक कविता 'पहाड़ का दर्द' भी संग्रह में मौजूद है, जो दूर-दूर से पहाड़ी सौन्दर्य निहारने और पहाड़ी जीवन के अनुभव लेने आये सैलानियों को समर्पित है। कवि के अनुसार वे सिर्फ कुछ समय के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में आते हैं और मौज-मस्ती कर, सुनहरी यादें साथ ले चल देते हैं, लेकिन वे यहाँ के जीवन के दर्द को महसूस नहीं कर सकते।

पूरी 38 कविताओं के बाद पुस्तक में प्रेम पर लिखी एकमात्र कविता पढ़ने को मिलती है। यकीन नहीं होता कि किसी कवि की पहली पुस्तक में प्रेम कविता के लिए इतना इंतज़ार करना पड़ता है। 'यादें' कविता में कवि अपनी प्रेमिका के साथ बीते दिनों को याद करने के बहाने बहुत सारे नाज़ुक अहसासों को शब्द देता है।
एक कविता 'मैं अभी मरा नहीं हूँ' में कवि प्राकृतिक आपदाओं के दौरान होने वाली लूट-पाट/ साजिशों की हकीकत प्रस्तुत करता है। प्राकृतिक आपदाओं के दौरान भी लोग किस प्रकार अपनी लालसा की पूर्ति के लिए मानवता को भूल बैठते हैं और पीड़ित व्यक्तियों के साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं, इस सच को बहुत स्पष्टता से कविता में पिरोया गया है।

'खाँसते पिता-1' में कवि ने वर्तमान दौर में अस्पतालों में हो रही लूट व मरीजों की व्यथा को उकेरने का एक असफल प्रयास किया है। इस कविता का कथ्य जितना मजबूत है, प्रस्तुतीकरण उतना ही कमज़ोर।
'खाँसते पिता-2' में एक बुज़ुर्ग व्यक्ति के घर में होने की अहमियत को बाख़ूबी शब्द दिये हैं। ऐसी कविताएँ आज के विकट दौर में बेहद प्रासंगिक हैं।
41 गद्य कविताओं से सजी इस पुस्तक की अधिकतर कविताएँ पढ़ने लायक हैं। इन ढेर सारी कविताओं में कुछ कविताएँ बहुत प्रभावी हैं, जिनमें से कुछ 'बाड़', 'किनारे की चट्टान', 'अक्षर की व्यथा', 'चिम्मु', 'आकांक्षा', 'कभी कभी' आदि हैं। कुछ कविताएँ ऐसी भी हैं जो अपनी विषय-वस्तु से भटकती हुई सी प्रतीत होती हैं।

पुस्तक में विभिन्न कविताओं में बहुत से स्थानीय शब्द भी पढ़ने को मिलते हैं, जिनसे पाठक का ज्ञान भंडार तो बढ़ता ही है, शब्दकोश भी व्यापक होता है। चिम्मु, काफ़ल, छ्ड़ोल्हू, कटारडू, मझयाड़ा, कुड़म, घेहड़ आदि कुछ ऐसे ही शब्द हैं।
पहली ही पुस्तक में इतनी अच्छी कविताओं को पढ़कर रचनाकार से और कई बेहतरीन पुस्तकों की उम्मीद बँधती है। पवन चौहान जी को सफल साहित्यिक भविष्य की शुभकामनाओं के साथ उनकी ही एक पंक्ति समर्पित। कलम ने कहा, "सफ़र जारी रखो, अपने आप रास्ते मिलते जायेंगे....मिल तो रहे हैं।"



समीक्ष्य पुस्तक- किनारे की चट्टान
विधा- कविता
रचनाकार- पवन चौहान
संस्करण- प्रथम, 2015
मूल्य- 70 रुपये
प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर

Saturday, July 16, 2016

मोगरे की भीनी-भीनी खुशबू से महकती शायरी की एक किताब: डाली मोगरे की




'मोगरे की डाली' के आस-पास बैठकर कभी हम अगर ज़िंदगी के अलग-अलग पहलुओं को शायरी के ज़रिये फूलों की खुशबू की तरह महसूस करें!
अरे नहीं! मैं कोई ख्व़ाब की बात नहीं कर रहा, न ही कोई ख्व़ाब सजा रहा हूँ। मैं ज़िक्र छेड़ रहा हूँ उम्दा शायर और बड़े भाई नीरज गोस्वामी के पहले ग़ज़ल संग्रह 'डाली मोगरे की' का।

शायरी मेरी तुम्हारे ज़िक्र से
मोगरे की यार डाली हो गयी

अभी कुछ दिनों पहले बड़े भाई नीरज जी ने अपनी यह बहुचर्चित पुस्तक सप्रेम भेज मुझे अपने आशीर्वाद से नवाज़ा है। मैं उनका शुक्रगुज़ार हूँ।
इस पुस्तक की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से सहज ही लग जायेगा कि इसका पहला संस्करण 2013 में आया, 2014 में दूसरा और फिर 2016 में तीसरा संस्करण भी प्रकाशित हुआ है।
1950 में पठानकोट में जन्मे भाई नीरज गोस्वामी पेशे से इंजीनियर हैं, जो पढ़ने-लिखने के साथ-साथ रंगमंच पर अभिनय के भी शौक़ीन हैं। इंटरनेट पर ख़ासे चर्चित रचनाकार हैं। और मज़ेदार बात ये है कि आप अपने ब्लॉग पर 'किताबों की दुनिया' नाम से पुस्तक-समीक्षा लिखते हैं, जिनकी संख्या अब तक लगभग सवा सौ हो चुकी है।
उर्दू हिंदी के धड़ों से अलग नीरज भाई आम हिंदुस्तानी ज़बान में अपने जज़्बात सादा-सरल लबो-लहज़े में शायरी के साँचों में ढालते हैं और यही आम ज़बान व सादा कहन ही इन्हें एक अलग पहचान देती है। इस किताब में हमें हमारी गंगा-जमुनी तहज़ीब की महक भी रह-रहकर महकाती रहती है।

मीर, तुलसी, ज़फ़र, जोश, मीरा, कबीर
दिल ही ग़ालिब है और दिल ही रसखान है

पूरी किताब में कुल 119 ग़ज़लें शामिल हैं, इनमें से 6 ग़ज़लें होली पर और 4 ग़ज़लें मुम्बइया ज़बान में भी हैं। नीरज भाई शायरी में आम बातों को बड़े ही सलीक़े से कहते हैं कि ये सीधे दिल पर असर करती हैं। इनकी ग़ज़लों में ज़िंदगी के हर पहलू पर शेर मिलेंगे। रिश्तों की टूटन, इंसानी फ़ितरत, अहसानफ़रामोशी, विकास के बदले चुकाई क़ीमत, ग्रामीण जीवन की झलक, बचपन की यादें और ऐसे ही बहुत सारे विषय इनकी शायरी की गिरफ़्त में आये हैं।

कभी बच्चों को मिलकर खिलखिलाते नाचते देखा
लगा तब ज़िंदगी ये हमने क्या से क्या बना ली है

पाँच करता है जो दो में दो जोड़कर
आजकल सिर्फ उसका ही गुणगान है

लूटकर जीने का आया दौर है
दान के किस्से पुराने हो गये

किताब में जगह जगह पर यथार्थ जीवन से परिचित कराते हुए, सीख देते हुए शेर देखने को मिल जायेंगे। आज के भयानक वातावरण में अलग-अलग झंडों के तले एक आम इंसान की जो सहमी सी हालत है, वो इस शेर के ज़रिये बा-ख़ूबी बयान होती है-

खौफ़ का ख़ंजर जिगर में जैसे हो उतरा हुआ
आज का इंसान है कुछ इस तरह सहमा हुआ

चारों तरफ भाग-दौड़ भरी ज़िंदगी है। एक बेमक़सद की रेस है, जिसमें हम अपने इंसान होने तक के अहसास को भूलकर बस होड़ करने में लगे हैं। ऐसे में गीत, संगीत, कलाएँ आदि सब छूटती जा रही है हमसे। इस माहौल पर नीरज भाई कुछ यूँ नसीहत देते नज़र आते हैं-

दौड़ते फिरते रहें पर ये ज़रूरी है कभी
बैठकर कुछ गीत की, झंकार की बातें करें

सही तो है, संस्कृत के एक श्लोक में आचार्य भर्तुहरि द्वारा कहा गया है कि साहित्य, संगीत और कला से विहीन मनुष्य साक्षात पशु के समान है-

साहित्यसङ्गीतकलाविहीन: साक्षात्पशु: पुच्छविषाणहीन:।


अपने कई अश'आर में ये हमें ज़िंदगी को खुलकर जीने का संदेश देते नज़र आते हैं। वाकई ज़िंदगी को खुलकर जीने का जो मज़ा है, वो नज़ारों को दूर से निहारने में कहाँ!!! तभी नीरज भाई कहते हैं-

खिड़कियों से झाँकना बेकार है
बारिशों में भीग जाना सीखिये

तौल बाज़ू, कूद जाओ इस चढ़े दरिया में तुम
क्यों खड़े हो यार तट पर ताकते लाचार से

ख़ुशबुएँ लेकर हवाएँ ख़ुद-ब-ख़ुद आ जाएँगी
खोलकर तो देखो घर की बंद सारी खिड़कियाँ

नफ़रत भरे आज के माहौल में नीरज भाई के ऐसे बहुत से शेर आपको इस किताब में मिल जायेंगे, जो मोहब्बत और भाईचारे की पैरवी करते हैं। एक रचनाकार का ये फ़र्ज़ होता है कि वह आम लोगों को परदे के पीछे की बातों से अवगत कराए और दूरगामी अंदेशों से सावधान करे, यहाँ नीरज जी अपने इस फ़र्ज़ को बा-ख़ूबी अंजाम देते नज़र आते हैं-

तल्ख़ियाँ दिल में न घोला कीजिए
गाँठ लग जाए तो खोला कीजिए

अदावत से न सुलझे हैं, न सुलझेंगे कभी मसले
हटा तू राह के काँटें, मैं लाकर गुल बिछाता हूँ

तुम राख़ करो नफ़रतें जो दिल में बसी हैं
इस आग में बस्ती के घरों को न जलाओ

घर तुम्हारा भी उड़ाकर साथ में ले जायेंगी
मत अदावत की चलाओ मुल्क में तुम आंधियाँ

अपने कई अश'आर में ये सियासत की भी ख़बर लेते दिखते हैं-

सियासत मुल्क में शायद है इक कंगाल की बेटी
हर इक बूढ़ा उसे पाने को कैसे छटपटाता है

ये कैसे रहनुमा तुमने चुने हैं
किसी के हाथ के जो झुनझुने हैं

आ पलट देते हैं हम मिलके सियासत जिसमें
हुक्मरां अपनी रिआया से दगा करते हैं

ख़ुदा हर जगह, हर शय में मौजूद है, बस हम ही मूर्ख हैं जो उसे इधर-उधर ढूँढते फिरते हैं। अगर कभी गौर से हम उसे अपने अंदर ढूँढे तो वो यक़ीनन मुस्कुराते हुए हमसे ज़रूर मिलेगा। उसकी बनाई ख़ुदाई की सेवा ही उसकी बंदगी है। उसकी सबसे प्यारी सृजना इंसान से मोहब्बत ही उसकी पूजा है, लेकिन अफ़सोस कि हम यह बात समझ ही नहीं पाते। नीरज भाई अपने एक शेर में उस थाली को पूजा की थाली बताते हैं, जिसमें किसी भूखे को भोजन कराया गया हो....आह्हा! कितना उम्दा और दिल ख़ुश करने वाला ख़याल है। इसी तरह के भाव लिए कुछ और शेर भी हैं किताब में-

डाल दीं भूखे को जिसमें रोटियाँ
बस वही पूजा की थाली हो गयी

रब कभी कुछ नहीं दिया करता
रात-दिन घंटियाँ बजाने से

छाँव मिलती जहाँ दुपहरी में
वो ही काशी है वो ही मक्का है

वतन के लिए शहीद हुए वीरों की भावनाओं को भी ग़ज़लकार ने अपने इक शेर में कुछ यूँ पिरोया है-

देख हालत देश की रोकर शहीदों ने कहा
क्या यही दिन देखने को हमने दीं कुर्बानियाँ

और जवाब में हम सब शर्मिंदगी के साथ निरुत्तर हैं।

ग़ज़ल के वास्तविक अर्थ 'महबूब से गुफ़्तगू' को भी नीरज भाई ने बड़ी नफ़ासत के साथ शब्द दिये हैं। बहुत सारे ऐसे अश'आर हैं किताब में जिन्हें आप ज़हन से नहीं दिल से पढ़ना पसंद करेंगे। देखिये-

गीत तेरे जब से हम गाने लगे
हैं जुदा सबसे नज़र आने लगे

आईने में ख़ास ही कुछ बात थी
आप जिसको देख शरमाने लगे

ये हुई ना 'गुफ़्तगू' अपने 'महबूब' से....मतलब हुई ना ग़ज़ल! कुछ और अश'आर देखिये और फिर अपने दिल पर हाथ रखकर उसकी धड़कनें महसूस कीजिये-

तेरी यादें तितलियाँ बनकर हैं हरदम नाचतीं
चैन लेने ही नहीं देतीं कभी मरजानियाँ

ये तितलियों के रक्स ये महकी हुई हवा
लगता है तुम भी साथ हो अबके बहार में

हर अदा में तेरी दिलकशी है प्रिये
जानलेवा मगर सादगी है प्रिये

भोर की लालिमा चाँद की चांदनी
सामने तेरे फीकी लगी है प्रिये

एक जगह तो नीरज भाई नींद में भी कमाई कर लाते हैं। 'नींद में कमाई' क्या ख़याल लाये हैं भाई....वाह्ह्ह

ख्व़ाब देखा है रात में तेरा
नींद में भी हुई कमाई है

पूरी किताब ही इस तरह की उम्दा शायरी से सजी है। बहुत सी ऐसी बातें हैं जिन पर बात की जा सकती है, बहुत से ऐसे मसअले हैं जिन पर चर्चा की जा सकती है। एक बहुत मजबूत पक्ष इस किताब का यह है कि इसमें शामिल सभी ग़ज़लें ग़ज़ल के व्याकरण के हिसाब से भी खरी हैं। अमूमन हिंदी की ग़ज़लों में शिल्पगत काफ़ी कमजोरियाँ मिलती हैं और यही फिलवक़्त हिंदी ग़ज़ल की सबसे बड़ी चुनौती है, लेकिन नीरज भाई सरीखे कुछ ग़ज़लकार हैं, जो ग़ज़ल के हुस्न में इज़ाफ़े के लिए कमर कसे हुए हैं। इन्होने कई जगह पर तत्सम शब्दों को भी बड़े सलीक़े से ग़ज़ल में बाँधा है तो साथ ही उर्दू के मुश्किल शब्दों को भी बहुत सहूलियत के साथ इस्तेमाल किया है। इस लिहाज़ से यह पुस्तक ग़ज़ल विधा के नए चेहरों के लिए बहुत उपयोगी है।

एक अच्छी, सफ़ल और चर्चित किताब के लिए बड़े भाई नीरज गोस्वामी को बहुत बहुत मुबारकबाद।





समीक्ष्य पुस्तक- डाली मोगरे की (ग़ज़ल संग्रह)
रचनाकार- नीरज गोस्वामी
संस्करण- सजिल्द, 2016 (तीसरा)
प्रकाशन- शिवना प्रकाशन, सीहोर (म.प्र.)
मूल्य- 150 रूपये

Tuesday, July 12, 2016

विभिन्न सामाजिक सरोकारों व पहलुओं को समेटे सफ़ल ‘लघुकथाएँ’




आज की अतिव्यस्त ज़िंदगी में हमारे पास ख़ाली समय न के बराबर बचा है। आज हर किसी को हर काम फ़टाफ़ट जल्दी से जल्दी निपटने की लगी रहती है। फटाफट क्रिकेट T20 की लोकप्रियता इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण है।
कुछ यही बात हमारे पढ़ने पर भी लागू होती है। आज अधिकतर लोगों के पास पढ़ने-गुनने का समय ही नहीं है और अगर कुछ लोगों के पास है भी तो थोड़ा-बहुत। ऐसे में अब कोई भी प्रबंधकाव्य, खंडकाव्य अथवा उपन्यास जैसी लम्बी रचनाएँ बढ़ने के बारे में सोच ही नहीं सकता; हाँ, कुछ साहित्य रसिकों को छोड़कर। आज तो बस ऐसा कुछ पढ़ने को चाहिए जो कम से कम शब्दों में अधिक से अधिक बात बता दे। ऐसे में लघुकथा एक मजबूत विकल्प बनकर उभरती है। लघुकथा कहानी का ही एक छोटा प्रारूप है, बहुत कम शब्दों और समय में ये वह सब कुछ परोस देती है जो एक पाठक को चाहिए होता है। जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव, मुद्दे, रोमांच और सीख सबकुछ हमें लघुकथा में भरपूर मिलता है। किसी एक संवेदना को पकड़कर पाठक को उसके चरम पर ले जाकर मंथन करने लिए विवश कर लघुकथा अपना उद्देश्य पूर्ण कर देती है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि आज गद्य की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा लघुकथा ही है। बहुत कम समय में अतिलोकप्रिय हुई इस विधा के दिग्गज रचनाकार हिंदी के पास मौजूद हैं, जो अत्यधिक प्रभावी लेखन कर रहे हैं। इस विधा के ख़ूब संग्रह भी प्रकाशित हो रहे हैं और खासे लोकप्रिय भी हो रहे हैं।


आज जिस संग्रह पर मैं बात करना चाहता हूँ वह भी लघुकथा संग्रह ही है। यह संग्रह जितेन्द्र चौहान जी के संपादन में ‘लघुकथाएँ’ नामक शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। पार्वती प्रकाशन, इंदौर से प्रकाशित इस पुस्तक में देशभर के कुल 8 लघुकथाकार शामिल हैं। सप्तक सीरिज के इस साझा लघुकथा संग्रह का यह दूसरा भाग है।
पुस्तक में शामिल पहली रचनाकार डॉ. शशि मंगल जी हैं, जिनकी पहली लघुकथा ‘कुछ दिन ऐसे भी’ थोड़ा प्रभावित करती है। स्कूल में छात्रों द्वारा छात्राओं को परेशान करने के कारण एक छात्रा कई दिनों तक स्कूल नहीं आती। ऐसे में उस छात्रा की बस में साथ आने वाली अध्यापिका इस बात को गंभीरता से लेती है और पूरे मामले का पता लगाती है, छात्रा को समझाती है, हौसला देती है और एक बेटी के स्कूल जारी रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कथा का विषय बहुत अच्छा है, इस तरह के सरोकार रचनाओं में आने चाहिए। लेकिन शशि मंगल जी की अन्य दोनों लघुकथाएँ निराश करती हैं।


संग्रह के दूसरे रचनाकार हैं जैनुल आबेदीन ख़ान, इनकी एक लघुकथा ‘आप भी ख़ुश हम भी ख़ुश’ एक प्रदेश विशेष के विद्युत विभाग के कर्मचारियों की पोल खोलती है। मेरे ख़याल से देश के किसी भी हिस्से में यह संभव है। इसे एक अच्छी लघुकथा कहा जा सकता है। इनकी बाकी 3 लघुकथाएँ कथ्य और विषय दोनों स्तर पर कमज़ोर नज़र आती हैं।

संग्रह की अगली रचनाकार अनुप्रिया चौघुले हैं, ‘बेटियों का बचपन’ और ‘कैसा मोल’ इनकी प्रभावी सार्थक लघुकथाएँ हैं, जो क्रमश: ‘लिंग भेद’ व ‘संकीर्ण पुरुषवादी मानसिकता’ को उजागर करती हैं। इनके अलावा ‘बौना’ तथा ‘स्वाभिमान’ भी अच्छी लघुकथाएँ कही जा सकती हैं। पुस्तक में इनकी कुल 7 लघुकथाएँ संग्रहित हैं।

कृष्णचंद्र महादेविया जो हिमाचल प्रदेश के महादेव नामक गाँव से हैं, कुल सात लघुकथाओं के साथ संग्रह में उपस्थित हैं। ‘दूध का क़र्ज़’ लघुकथा में वे एक बेटे में पनप रहे सफ़लता के दर्प को उजागर करते हुए माँ द्वारा उसे विनम्र रहने की सीख देते हैं। बहुत अच्छे विषय पर सधी हुई यह रचना बहुत सुंदर बन पड़ी है। इसके अलावा इनकी अन्य लघुकथाएँ भी पठनीय हैं।


पुस्तक में ममता देवी के रूप में एक बेहतरीन लघुकथाकार उपस्थित हैं। इनकी सभी 6 लघुकथाएँ उत्कृष्ट कही जा सकती हैं और साथ ही इस रचनाकार को पुस्तक का हासिल माना जा सकता है। पेशे से अंग्रेज़ी की प्रवक्ता ममता जी ने आम इंसान की सामान्य जीवन से जुड़ी विभिन्न घटनाओं पर कलम चलाते हुए उन्हें जीवंत अभिव्यक्ति दी है। ‘एसिड अटैक’ नामक लघुकथा का ताना-बाना कुछ इस तरह गूंथा है कि एक भाई द्वारा भूलवश अपनी ही बहन पर एसिड अटैक हो जाता है। बहन जो कि भाई की लव स्टोरी में शरारत के उद्देश्य से भाई द्वारा रखे लिफ़ाफ़े में उसकी प्रेमिका की तस्वीर के स्थान पर अपनी तस्वीर रख देती है, भाई की क्रूरता का शिकार हो जाती है और क़ुदरत की यह अनोखी लीला भरे-पूरे परिवार को तबाह कर देती है। पश्चाताप वश भाई भी सुसाइड कर लेता है। एक महत्त्वपूर्ण विषय का मार्मिक चित्रण कर रचनाकार ने लघुकथा को सार्थक कर दिया है। ममता जी की भाषा और शैली भी काफ़ी समृद्ध हैं। इनकी रचनाओं में नवीनता के साथ परिपक्वता भी देखने को मिलती है। ‘करवा चौथ’ तथा ‘तुलसीदास’ भी इनकी अत्यधिक प्रभावी रचनाएँ हैं।

अगली लघुकथाकार भावना दामले जी हैं, जिन्होंने अपनी छः लघुकथाओं के माध्यम से विभिन्न सामाजिक सरोकार हमारे सामने रखे हैं। एक लघुकथाकार के बतौर भावना जी का लेखन अभी प्रारंभिक अवस्था में है। हालाँकि इन्होंने अच्छे विषयों पर रचनाएँ प्रस्तुत की हैं और काफ़ी हद तक प्रभावित किया है लेकिन इनसे और बेहतर की उम्मीद है।

संग्रह के अगले रचनाकार मनोज चौहान जो शिमला, हिमाचल प्रदेश से हैं। इन्हें अब तक मैं एक कवि के बतौर ही जानता था, लेकिन इनकी लघुकथाएँ पढ़ने के बाद यह अच्छे से समझ चुका हूँ कि ये एक बहुत अच्छे लघुकथाकार भी हैं। संग्रह में शामिल इनकी छः लघुकथाओं में से 3 लघुकथाएँ बहुत समर्थ रचनाएँ हैं। ‘साक्षात्कार’ जो नौकरियों में हो रहे भ्रष्टाचार की पोल खोलती है, ‘व्यंग्य बाण’ जो आरक्षण का विरोध करने के बहाने आपसी दुश्मनी निकालने वालों पर व्यंग्य बाण चलाती है और ‘मनचले’ जो महिलाओं के साथ हो रही छेड़खानी की समस्या को उठाती है व उसका हल भी सुझाती है, पुस्तक की कुछ बहुत अच्छी लघुकथाओं में शुमार की जा सकती हैं। इनकी बाकी 3 लघुकथाएँ भी पठनीय हैं।


पुस्तक में सम्मिलित अंतिम रचनाकार मनोज कुमार ‘शिव’ भी सिद्धहस्त लघुकथाकार कहे जा सकते हैं। इन्होंने अपनी लघुकथाओं में कई अछूते अहसासों को बारीकी से पिरोया है। इनकी ‘लाल साड़ी’ नामक लघुकथा जो नि:संतान ग़रीब दंपत्ति की कथा है, अंत तक आते आते पति के पत्नी के प्रति प्रेम को देखकर भावुक कर जाती है। इनकी ‘जलेबी मेले की’, ‘दोहरापन’, और ‘समझौता’ उल्लेखनीय रचनाएँ हैं। ‘जलेबी मेले की’ लघुकथा अनायास ही कथासम्राट प्रेमचंद की कालजयी कहानी ‘ईदगाह’ का स्मरण करा जाती है, लेकिन बहुत अच्छी बात यह है कि यह जान-बुझकर ऐसा नहीं करती, सहज ही उस कहानी की विषय-वस्तु के निकट पहुँच जाती है। पुस्तक में इनकी कुल सात लघुकथाएँ हैं।

‘लघुकथाएँ’ पढ़कर यह महसूस हुआ कि इस तरह की किताबें छपनी चाहिए और पढ़ी जानी चाहिए। मैं साधुवाद देता हूँ अपने रचनाकार मित्र मनोज चौहान जी का जिन्होंने मुझे यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक उपलब्ध करायी।
पुस्तक के संपादक जितेन्द्र चौहान जी को बहुत बहुत शुभकामनाएँ इस उत्कृष्ट कार्य के लिए, जिसमें इन्होंने हर आयु वर्ग के रचनाकारों को शामिल किया और शामिल किया उन ज़रूरी सरोकारों को, जिनका शामिल किया जाना बहुत ज़रूरी था। पुस्तक में हमें विभिन्न सामाजिक सरोकारों व पहलुओं पर अच्छी लघुकथाएँ पढ़ने को मिलती हैं। हाँ, संपादकीय की कमी ज़रूर खलती है। ऐसे संकलन में संपादकीय न होकर, पिछले संकलन की समीक्षा का छपा होना कुछ अटपटा-सा लगता है। खैर, फिर भी यह संपादक के नज़रिये पर निर्भर करता है।
पुस्तक में सम्मिलित सभी रचनाकारों को बधाई देते हुए उनसे आग्रह करूँगा कि वे इसी तरह समय और समाज के लिए महत्त्वपूर्ण रचनाएँ रचते रहें।






समीक्ष्य पुस्तक- लघुकथाएँ (साझा संग्रह)
संपादक- जितेन्द्र चौहान
संस्करण- प्रथम, 2016 पेपरबैक
प्रकाशन- पार्वती प्रकाशन, इंदौर ( संपर्क नं. 09165904583)
मूल्य- 80 रूपये

Sunday, July 10, 2016

पारंपरिक कहन और नई फ़िक्र का ताज़ा मजमुआ: ज़िंदगी के साथ चलकर देखिये





क़रीब तीन सौ साल का सफ़र तय करने के बाद आज ग़ज़ल आम आदमी के बीच आ खड़ी है। एक मुफ़लिस की ग़रीबी पर अश्क़ बहा रही है तो अपने दौर की कालिख़ को भी शब्द दे रही है। नि:संदेह ग़ज़ल आज की सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हो चुकी है। जबसे यह महलों की तंग गलियों और महबूब की बांहों से निकल हक़ीक़त के रास्तों पर उतर आयी है, तबसे हर शख्श ने इसका हाथ थामा है और इसे अपने साथ चलता पाया है। अब आज की ग़ज़ल देश-दुनिया की फ़िक्र बयाँ करती है और हर विषय को अपने दामन में भर अपने आँचल की खूबसूरती बढ़ाती नज़र आ रही है।

आज देखा यह जा रहा है कि हर नया-पुराना शायर ग़ज़ल की पारंपरिक रूढ़ियों के दायरों से बाहर निकल उसके शिल्प, कहन, विषय और तत्त्वों में ताज़गी भरना चाह रहा है और चाह रहा है कि ग़ज़ल के चाहने वालों को यह नये से नये फ्लेवर में मिले ताकि इसका स्वाद और मज़ा हर बार नया लगे।

इसी कोशिश में एक नाम युवा शायर शिज्जु शकूर का भी शामिल है। शिज्जु शकूर अपने तमाम अनुभवों को ग़ज़ल के साँचे में ढाल ज़िंदगी के साथ चलकर देखना चाहते हैं। रायपुर, छत्तीसगढ़ के युवा ग़ज़लकार शिज्जु शकूर साहब एक तरफ एक दवा कंपनी में क्षेत्रीय प्रबंधक पद को सुशोभित कर रहे हैं तो दूसरी ओर ये ग़ज़ल, कविता और दोहों के सृजन से साहित्य को भी समृद्ध कर रहे हैं। कुछ समय पहले इनका एक ग़ज़ल संग्रह 'ज़िंदगी के साथ चलकर देखिये' प्रतिष्ठित प्रकाशन समूह 'अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद' से प्रकाशित हुआ है, जो इनका पहला प्रकाशन है। इससे पहले इनकी रचनाएँ साझा संकलन 'ग़ज़ल के फ़लक पर-1' और 'शब्द व्यंजना', 'अभिव्यक्ति अनुभूति' व 'हस्ताक्षर' आदि वेब पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं।

ग़ज़ल की पारंपरिकता के साथ आधुनिकता का समावेश कर अच्छे शेर कहने वाले शिज्जु शकूर अपने पहले ही संग्रह में हर तरह की 'वेरायटी' के साथ उपलब्ध हैं। पारंपरिक कहन, भारी भरकम अरबी-फ़ारसी युक्त शब्दावली के साथ जदीद फ़िक्र व ताज़ा कोशिशें लेकर अपने संग्रह में ग़ज़ल के हर रंग को समेटते दीखते हैं। देखिये-



कभी ग़ज़ल में उतर ख्व़ाब में समा के कभी

जमालो-वुसअते-क़ुदरत टहल के देखते हैं


ये रंगे-इश्को-वफ़ा गाह रंजो-शाद कभी
ग़ज़ल के रंग में डूबा हूँ इक ज़माने से

इनके कलाम में कुछ रूमानी अश'आरों की बदौलत मोहब्बत के नाज़ुक अहसासात की शिनाख्त भी होती है, लेकिन ये अहसास लौकिक कम, अलौकिक ज़्यादा लगता है-

मेरी ग़ज़ल में उतर आती है वो आहिस्ता
मेरा हयात से बस इतना वास्ता ही सही

औराक़ पर उतर गये पल इंतज़ार के
मिसरों में तेरी शक्ल सी मानो बनी हुई

अब लाज़िम सी बात है कि अगर मोहब्बत का अहसास है तो दिल पर चोट और शिकवे, शिकायतें तो होंगी ही, देखिये फिर-

कुछ रोज़ की तड़प थी फ़कत ऐ मेरे हबीब
इक तज़्रिबा हुआ कि तुझे जान तो गया

जब शायर एक ऐसे अनिश्चित दौर में जी रहा हो, जहाँ हर ओर बस धुआं-धुआं सा हो। कुछ भी साफ़ साफ़ नज़र न आ रहा हो, न फ़ितरत, न हरकत और ना ही मंसूबे। एक वर्ग हो जो अपने आक़ाओं की शह पे अपने वक़्त के चेहरे को बिगाड़ने पर तुला हो और दूसरा वर्ग ठगा-ठगा सा, मंज़र समझने की कोशिश कर रहा हो। चारों तरफ कुछ भी सही न हो और अनिष्ट की आशंका मुँह बाए सर पे खड़ी हो, तब कलम यही लिखेगी, क्यूंकि यही लिखना उसका धर्म होगा-

अब खुलके उगलते हैं वो ज़हर फ़िज़ाओं में
क्यूँ आज क़यामत की है गंध हवाओं में

कौनसा है रास्ता महफूज़ जाऊं किस तरफ़
आफ़तें तो आफ़तें है आयें चारों ओर से

न जाने शह्र ये किसकी अमाँ में है क्या हो
यहाँ हर आँख में डर के सिवा कुछ और नहीं

हाल के माहौल में गंदी राजनीति व अंधी राष्ट्रभक्ति की हवा में अच्छे-अच्छे समझदार बहकते दिखाई दे रहे हैं। जिनसे उम्मीद न थी, वे भी बचकानी बातें कर रहे हैं। कुछ ऐसे ही नादान साथियों को संबोधित कर शकूर साहब कह रहे हैं-

किसी खूँख्वार को मतलब नहीं ईमानों दीं से कुछ
तू आँखें खोल के देखे तो तेरा सारा भ्रम निकले

और यही शेर जेहाद के नाम पर दुनिया भर में ताण्डव फैला रहे बेवकूफ़ो की ज़ेहालत की हक़ीक़त बताता हुआ, ईमान वालों को अपने मज़हब को ठीक से समझने की सलाह भी देता है।
एक आम वोटर की नज़र से देखें तो इक शेर उसे अपनी औकात समझाता हुआ सा महसूस होता है-

उँगलियाँ थीं, नाम थे, पहचान थी सबकी मगर
वे सभी बस वोट थे उनका कोई चेहरा न था

किताब में सामाजिक सरोकारों के भी अनेकों शेर अपनी मौजूदगी दर्शाते हैं। आज बुज़ुर्गों की उपेक्षा की कहानी जगह जगह खुलने वाले वृद्ध आश्रम और भागती-दौड़ती ज़िंदगी को क़रीब से देखते फुटपाथ बा-ख़ूबी बयान करते हैं। लेकिन यह हमारी बदकिस्मती ही है कि हम अपने बुज़ुर्गों के अनुभवों से फ़ायदा उठाने की बजाय उन्हें दर-बदर कर रहे हैं। शायर अपने एक शेर में हमारे विवेक पर कुछ यूँ आश्चर्य करता है-

आजकल निगाहों को क्या हुआ ज़माने की
तज़्रिबे को चेहरे की झुर्रियाँ समझते हैं

एक छोटी बहर की ग़ज़ल में हादसों के बीच ज़िंदगी का सिलसिला बताते हुए शायर मुश्किल हालातों से जिजीविषा के साथ लड़ने का हौसला देता है तो साथ ही यह भी बताता है कि नाकामियों के अंतिम छोर पर ही क़ामयाबी की दहलीज़ होती है, जिसे देखे बिना ही हम नाकामियों का मातम मना, हार मानकर लौट आते हैं और क़ामयाबी हमसे महज़ एक क़दम दूर रह जाती है। यहाँ शायर एक दार्शनिक का जामा पहनकर हमसे मुख़ातिब होता है-

ये भी जीने की अदा है
ज़ीस्त का हर पल नया है
हादसों के दरमियाँ इक
ज़िंदगी का सिलसिला है
छोर पर नाकामियों के
मंज़िलों का रास्ता है

शायर की दार्शनिकता का एक और सबूत देखिये-

भीड़ चेहरे सिर्फ़ कहने के लिए मौजूद हैं
घूमकर देखा मगर मुझको मिला कोई नहीं

भारतीय संस्कृति की समन्वय शक्ति का उदहारण देती हुई किताब में दीपावली के माहौल पर एक प्यारी ग़ज़ल देखने को मिलती है। एक मुस्लिम शायर की कलम से हिन्दू धर्म के एक त्यौहार पर इतनी खूबसूरत ग़ज़ल पढ़कर हैरानगी कतई नहीं होती, बल्कि रसखान, रहीम सरीखे भक्त कवियों का स्मरण हो आता है और साहित्य की पवित्रता की बलाइयाँ लेने का मन करता है।

धुआँ होकर बलाएँ भाग जाती हैं दिवाली में
दुआएँ खुलके यूँ जल्वे दिखाती हैं दिवाली में
ज़मीं पर आसमां मानो उतर आता है हर सू जब
चराग़ों की सफ़ें, लौ जगमगाती हैं दिवाली में
चराग़ों, रौशनी की वुसअतों के दरमियाँ बेबस
कहीं तारीकियाँ भी छटपटाती हैं दिवाली में

कुल मिलाकर शकूर साहब की पहली ही किताब में पाठक को ज़िंदगी के हर पहलू पर अच्छे अश'आर पढ़ने को मिलेंगे तो साथ ही शायरी की बारीकियों को समझने का मौक़ा भी मिलेगा। हाँ, एकाध जगह पर कुछ खटकता हुआ सा भी लगता है, लेकिन बहुत कम। एक अच्छे शायर की कोशिश में कुछ कमियों का होना लाज़मी भी है। उम्मीद है कि आने वाले दिनों में शकूर साहब की शायरी का मेआर आला मकाम पायेगा। एक अच्छी किताब की मुबारकबाद के साथ दुआएँ हैं कि मन ही मन ख़ूब सोचते रहिये, ख़ूब मुस्कुराइये और धड़कनों की साज़ पर ख़ूब ग़ज़लें गाइये।

मन ही मन कुछ सोचता हूँ मुस्कुराता हूँ कभी
धड़कनों की साज़ पर अपनी ग़ज़ल गाने के बाद





समीक्ष्य पुस्तक- ज़िंदगी के साथ चलकर देखिये
विधा- ग़ज़ल
रचनाकार- शिज्जु शकूर
प्रकाशक- अंजुमन प्रकाशन, इलाहबाद
संस्करण- प्रथम, पेपरबैक, 2015
मूल्य- 120 रूपये

Friday, July 8, 2016

एक ज़मीनी सितारे की सदाओं को आसमां तक पहुँचाता मजमुआ: आसमां तक सदा नहीं जाती





शायरी का परिचय जब महलों से, महबूब की जुल्फों से निकलकर आम ज़िन्दगी से हुआ तो रास्ते में उसे बड़े-बड़े फ़नकार मिले, जिन्होंने उसका हाथ थामकर, उंगली पकड़कर बहुत करीने से ज़माने की हर तंग गली से गुजारा और बड़ी नज़ाकत से संवारा। शायरी के उन्हीं आधुनिक पैरोकारों की अगली नस्ल में एक और नाम जुड़ रहा है, जो ग़ज़ल के मिज़ाज को और ख़ूबियाँ देने में हर तरह से क़ाबिल है।
यह नौजवान शायर इतनी कमसिनी में भी ऐसी ज़हीन बातें कह जाता है कि एकबारगी इसकी उम्र पर शक़ होने लगता है। लेकिन यह सच है कि अनुभव उम्र के आंकड़ों से नहीं बल्कि दुनिया में खाये धक्कों से आता है। इस शायर ने कम उम्र में ही कई बड़े-बड़े धक्के खा लिये हैं कि इसे दुनिया के फ़ानी होने का अंदाज़ा बखूबी हो गया है। जोधपुर शहर में पला-बढ़ा यह शायर अपनी दृष्टी से न केवल पूरी दुनिया को देख आया है बल्कि चाँद-तारों के पार भी झाँक आया है, उनसे आँखें मिला आया है।
जी हाँ, सरताज अली रिज़वी उर्फ़ फ़ानी जोधपुरी की ग़ज़लों को पढ़कर यह सहज ही समझा जा सकता है कि ख़ुदा ने इन्हें दुनिया को देखने/समझने की कितनी बारीक नज़र अता की है। इनकी शायरी में एक नयापन है जो इन्हें आधुनिक ग़ज़लकारों की पहली सफ (पंक्ति) में खड़ा करने में सक्षम है।

इनकी ग़ज़लों का पहला मजमुआ हाल ही में जवाहर कला केंद्र, जयपुर के सहयोग से बोधि प्रकाशन, जयपुर से छपकर आया है ‘आसमां तक सदा नहीं जाती’। हालाँकि फ़ानी कई सालों से शायरी की दुनिया में अपना एक मुक़ाम रखते हैं।
सूरज पे छाँव का वार करना, पीठ पर रस्ता करना, काँच की बरसात में चलना, चाँद की किरणें खंगालना, धूप का ज़हर सोखना आदि बिम्ब/प्रतीक ऐसे गहने हैं, जिन्हें ये अपनी ग़ज़लों को पहनाकर अपनी शायरी की सुन्दरता को एक अलग ही श्रृंगार  देते हैं। कुछ ऐसे ही बिम्ब देखिये, जो सहज ही आँखों में उतर जाते हैं-

जहाँ तक है नज़र लफ़्ज़ों की है बिखरी हुई बालू
ग़ज़ल इससे चलो ऐ यार मुट्ठी भर बनाते हैं

सूरज के रुख पे धूप का क्या नूर आ गया
जो उठ रही है पानी की चादर ज़मीन से

ये झोंके आदमी के रंग में रंगने लगे शायद
तभी सोते हुए जिस्मों से चादर चाट लेते हैं

कहीं-कहीं ये बिलकुल ही नया प्रतीक लेकर खड़े मिलते हैं, जो आधुनिक शायरी की एक बड़ी मांग है। देखें-

मैं अपनी घुटन का हूँ एक पोस्टर
हवा के परों पे लगाना मुझे

उड़ती हुई पतंगों के लब पे थी ये सदा
सूरज पे आओ मिलके करें वार छाँव का

हू-ब-हू बेवा की उजड़ी मांग-सी
ये गली सूनी पड़ी है घर चलो

इस जहाँ के लिए जो हो फ़ानी
एक तस्बीह ऐसी फेरा कर

फ़ानी जोधपुरी बिलकुल आम बोलचाल की भाषा में बड़ी से बड़ी बात को आसानी से कह जाते हैं और यही एक वजह है कि पाठक इनकी ग़ज़लों को हाथो-हाथ लेता है। इनके पास कम से कम शब्दों में बहुत बड़ी बात कह जाने का मन्त्र है शायद। आप भी देखिये-

बाबा के कर्जे और मैं इक शाख पे पले
महका जो मैं तो मुझको चमन छोड़ना पड़ा
इस शेर के बहाने वो आज के मध्यम वर्ग के युवा की पीड़ा को कितनी आसानी से कह जाते हैं!

बारिश की बूँद-बूँद को तरसा किये मगर
इक मैक़दा अकेला कई घर भिगो गया
शराब से होने वाले नुक्सान को इससे ज्यादा असरदार तरीक़े से कोई क्या शायरी में कह पायेगा!

यूँ न ख़ुद को लहू-लहू करते
हम अगर पहले गुफ्तगू करते
एक छोटी-सी बात को सांप्रदायिक तूल देने से पहले दोनों पक्ष अगर इन दो मिसरों को समझ लेते तो शायद इंसानियत लहू-लहू होने से बच जाती।

इनकी शायरी में सोच का फ़लक भी बहुत विस्तृत है। वे जीवन के हर पहलू पर कलम चलाते नज़र आते हैं। ज़िन्दगी ने इन्हें छोटी-सी उम्र में ख़ूब आजमाया है और उस आज़माइश में ये तज़ुर्बे का एक नायाब ख़ज़ाना कमा लाये हैं, जो इनकी शायरी में भी ख़ूब झलकता है-

कमसिनी में ही ज़िन्दगी तुझको
तेरा घूंघट उठा के देख लिया

रंग दुनिया का मुझे दिखला दिया
ज़िन्दगी तूने बहुत अच्छा किया

दाग़ को भी जिस्म पे पहले कहीं महफूज़ कर
बाद में फिर चाँद जैसा जितना चाहे झिलमिला

हालांकि किताब की पहली ही ग़ज़ल के मक्ते में फ़ानी कहते हैं कि-

फ़ानी से ग़ज़लें इश्क़ की मुमकिन नहीं कभी
उम्मीदे-गुल न पालिए बंजर ज़मीन से

लेकिन जहाँ उन्होंने इश्क़ पर कुछ लिखा है, वो 'इश्क का इक मुकाम' पाने के बाद ही लिख पाना संभव है, जनाब इस विषय पर भी गहरे ख्याल रखते हैं, देखें-

तुम्हारे नाम को कागज़ पे लिखना
ग़ज़ल कहने की क़ुव्वत दे गया है

उस जगह बस तुझे-तुझे पाया
जिस जगह सोच हार जाती है

इनकी ग़ज़लों में सामयिक मसलों पर भी अशआर देखने को मिलते हैं। सही तो है जो रचनाकार अपने दौर को नहीं जीता, वो खाक़ जीता है! आज की तल्ख हकीक़त पर इनके कुछ शेर देखें-

पस्तियों से बाम तक दिखती नहीं है सीढ़ियाँ
दिख रहा है आदमी पे आदमी चलता हुआ

कुछ नए भगवान हैं इंसान को भटका रहे
फिर यहाँ दरवेश इक गौतम-सा होना चाहिए

फ़ज़ा में गूंजती है चीख कैसी
कोई आँचल कहीं मैला हुआ है

फकत इक दायरे में घूमती है
मगर क्या वक़्त भी बदला घड़ी से

एक सूफ़ियाना टच और कलंदरी इनकी ग़ज़लों में बारहा देखने को मिलती है, जो इनकी शख्सियत का भी इक अहम हिस्सा है। कुछ अशआर देखें-

या मेरी आवाज़ को मेरे गले में गर्क़ कर
या मेरी आवाज़ से आवाज़ तू अपनी मिला

एक मिटती लकीर जैसा हूँ
आदतन मैं फकीर जैसा हूँ

सबसे बड़ी बात यह है कि चाँद-तारों को छूने की उम्मीद बंधाता यह शायर पैरों से ज़मीन को नहीं छोड़ता। यक़ीनन फ़ानी जोधपुरी हिन्दुस्तान की शायरी में एक उभरता हुआ सितारा है। आज फानी कागज़ के कच्चे चेहरे पर ग़ज़लों के बहाने कुछ ऐसा लिख रहे हैं कि आने वाली पीढियां उसे सदियों तक नहीं भूल पायेंगी। बकौल फ़ानी-

आने वाली पीढ़ी जिसको भूल न पाए सदियों तक
कागज़ के कच्चे चेहरे पर कुछ ऐसा लिख जाते हैं

भाई फ़ानी जोधपुरी का ग़ज़लों का पहला मजमुआ पढ़कर ये विश्वास और पक्का हो जाता है कि फ़ानी कलम के कारीगर हैं। इनकी बेमिसाल ग़ज़लें पढ़कर सहसा मुँह से निकल पड़ता है-

है कौन सायबाँ तेरे सुखन का ऐ फ़ानी!
तेरे कलम से जो कारीगरी नहीं जाती






समीक्ष्य पुस्तक- आसमां तक सदा नहीं जाती
रचनाकार- फ़ानी जोधपुरी
प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर
संस्करण- प्रथम (2014)
मूल्य- 125 रूपये मात्र


(यह लेख अनंग प्रकाशन, दिल्ली से आई 'शोध-समीक्षा: विविध परिदृश्य' नामक पुस्तक में प्रकाशित है)