Tuesday, August 23, 2016

जीवन के विविध पहलुओं और सामाजिक सरोकारों को आवाज़ देती एक कृति: पीपल बिछोह में





एक अच्छा साहित्यकार भावनाओं को सीमाओं में नहीं बाँधता बल्कि अपने मस्तिष्क में उमड़ते-घुमड़ते भावों को कलम का सहारा दे, काग़ज़ की ज़मीन पर उतरने में सहयोग करता है। फिर वे भाव चाहे किसी भी स्वरूप में हों, जैसे- गीत, कविता, कथा या कोई भी अन्य विधा।
भावों की आमद सहज होती है, वे किसी भी रचनाकार की क़लम को ज़रिया बना, अपना स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। इनके साथ ज़ोर-ज़बरदस्ती करने या इन्हें किन्हीं निश्चित साँचों में फिट करने की कोशिशों में ये अक्सर अपना असर खो बैठते हैं, इसलिए इन्हें अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़, जैसे ये चाहें, जिस रूप में चाहें, स्वतः आने दिया जाना चाहिए।
अभी पिछले दिनों 'पीपल बिछोह में' पुस्तक मिली, जो अलग-अलग विधाओं की काव्य रचनाओं का संकलन है। पुस्तक में गीत, नवगीत, गीतिका, दोहा आदि विधाओं के साथ-साथ छंदबद्ध व छंद मुक्त कविताएँ भी शामिल हैं। अलग-अलग विधाओं की रचनाओं में अपनी बातें कहती ये पुस्तक रचनाकार के बहुआयामी सृजक होने का प्रमाण है। पुस्तक का शीर्षक 'पीपल बिछोह में' बहुत आकर्षक और मन को दो पल रोकने वाला शीर्षक है।
यह कृति एक उम्रदराज़ रचनाकार की तीसरी किताब है, इससे पहले इनकी दो किताबें 'साँस साँस जीवन' और 'पावन धार गंगा है' प्रकाशित हो चुकी हैं।
'पीपल बिछोह में' नौकरी के सिलसिले में अपने गाँव से दूर रहे एक संवेदनशील मन की अभिव्यक्ति है, जो सालों अपने गाँव, अपने परिवेश, अपने परिवार से दूर रहने के बावजूद भी इन सबसे विलग नहीं हो पाया।
खोया कहीं बचपन
तरुणाई के मोह में
छोड़ दिया गाँव तभी
जीविका की टोह में
भटके आकुल अनाथ मन
पीपल बिछोह में!
गीत का मुखड़ा इस बात की गवाही है कि यह आकुल मन एक उम्र बीत जाने के बावजूद भी अपने गाँव की मिट्टी की महक, पीपल का प्यार और बचपन की स्मृतियाँ नहीं भुला पाया है।
इस गीत में पुस्तक के रचनाकार ओमप्रकाश नौटियाल जी ने ग्रामीण परिवेश का सजीव चित्रण करने के साथ ही ग्रामवासियों और पीपल के पेड़ के जुड़ाव को बहुत सुंदर तरीक़े से शब्दबद्ध किया है।
पुस्तक में कुल 66 काव्य रचनाओं में नौटियाल जी ने जीवन के विविध पहलुओं के साथ विभिन्न सामाजिक सरोकारों को आवाज़ दी है। नौटियाल जी के लेखन में समकालीनता और सामाजिक सरोकार बहुत मजबूती से उपस्थित रहते हैं और यही वजह है मेरे इनके लेखन से प्रभावित होने की।
पर्वतीय प्रदेश उत्तराखण्ड के देहरादून शहर में पले-बढे नौटियाल जी की कविताओं में प्रकृति-प्रेम मुखर होकर बोलता है। फिर चाहे वह 'पीपल बिछोह में' गीत हो, 'माटी की सौंधी महक' नाम से दोहावली हो या 'पर्वतवासी' कविता हो, सबमें प्रकृति का बारीकी से विश्लेषण हुआ है।
'पर्वतवासी' कविता में पहाड़ों के शांत, सुरम्य वातावरण का प्रभावी वर्णन और प्राकृतिक सौन्दर्य का सजीव अंकन मिलता है-
सभी कुछ दृष्टव्य स्पष्ट यहाँ
मानो खुली एक मुट्ठी है
जीवन है शांत, सरल, सादा
ना कोई उलझी गुत्थी है
है सुरम्य सौन्दर्य प्रकृति का
मनभावन मौन इशारे हैं
जीवन की परिभाषा इनसे
अंदाज़ यहाँ के न्यारे हैं

कितना सरल, सादा और मनभावन चित्रण है।
गोरैया के लुप्त होने की चिंता ने भी इनके प्रकृति-प्रेमी मन को व्याकुल किया और उसके गायब होने को हमसे रूठ जाने की उपमा देते हुए 'कहाँ गयी गोरैया' कविता का सृजन करवा लिया। आज के स्वार्थी परिवेश में न तो हमारे घरों में पक्षियों के लिए दाना-पानी की व्यवस्था रही, न ही हमने इनके आसरे 'पेड़ों' को रहने दिया, फिर इन बेज़ुबानों का हमसे रूठने का हक़ बनता ही है।
शहर शहर में ढूँढे गाँव/ गाँव गाँव में बाग
मिला न कोई नीम/ न ही खेत खलिहान
दिखे न बिखरे दाने/ कहाँ जाए भूख मिटाने?
न वृक्षों पर जल की हांडी/ न कहीं ताल-तलैया
रूठ गयी गोरैया!!
पुस्तक में एक कविता 'पृथ्वी और नभ' में पृथ्वी और आकाश के माध्यम से मर्यादित प्रेम की बहुत सुंदर प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हुई है। पूरी कविता को सिर्फ प्रेम की परिभाषा भी कह सकते हैं। यह एक परिपक्व रचना है। 'संध्या और भोर के समय आकाश द्वारा लालिमा से पृथ्वी की मांग भरा जाना' कितना सुंदर बिम्ब लिया गया है।
प्रेम का यह है/ सात्विक स्वरूप
आकाशीय गरिमा का प्रतीक
मिलन की व्यग्रता नहीं
चाह केवल
अपलक निहारने की
अपनी लालिमा से
भोर और संध्या में
मांग भरना पृथ्वी की
'बतियाने का मन होने पर धरती और आकाश रूपी दोनों प्रेमी क्षितिज पर लोगों की निगाहों से दूर कुछ घड़ी को मिल लेते हैं' क्षितिज का प्रयोग करते हुए कितना मनोहर मानवीकरण हुआ है। यह रचना पुस्तक की श्रेष्ठ रचना है।
प्रकृति चित्रण के अलावा भी पुस्तक में बहुत से विषयों पर रचनाएँ हैं। समकालीन घटनाओं पर भी कुछ कविताएँ दृष्टव्य हैं। आतंकवाद और आंतकवादी हमलों पर आधारित एक कविता में नौटियाल जी कहते हैं-
कोई धर्म ग्रंथ हो/ या फिर गुरू पंथ हो
सभी का निचोड़ यही/ श्रद्धा प्रेम अनंत हो
मस्तिष्क में कौन फिर
विष विचार टांग गया
दरिंदा दरिंदगी की
सीमा हर लाँघ गया
इसी तरह की एक कविता 'जीवन में केवल प्यार रहे' में जीवन में प्रेम के महत्त्व को स्पष्ट कर प्रेम से जीने और नफ़रत से दूर रहने का संदेश दिया गया है। इस कविता में कवि युवाओं को हर तरह की हिंसा को छोड़ सिर्फ प्रेमभाव से राष्ट्र निर्माण करने की सीख देता है।
देश में स्त्रियों के प्रति अमानवीय व्यवहार और भेदभाव से आहत हो नौटियाल जी एक कविता 'मैं कन्या' में अजन्मी बच्ची से लेकर विवाहिता युवती तक हर पल दहशत में जी रही नारी की मानसिकता का दयनीय चित्रण किया है।
'पेट के लिये' कविता में भी ये एक मजदूर के जीवन की भयावह स्थिति को हमारे सामने रखते हैं। 'पेट के लिए उसे कमर बाँधनी ही पड़ेगी और यही उसकी योग साधना है' इस भाव के साथ कविता में बहुत गहरा कटाक्ष किया गया है। सही भी है, जब तक पेट की आग नहीं बुझती, उसके अलावा इंसान को कुछ भी नहीं सूझता।
'बदलेगा देश' कविता के माध्यम से देश में सकारात्मक बदलाव की उम्मीद की गयी है और साथ ही उस बदलाव के लिए रचना में कुछ उपाय भी बतलाये गये हैं।
पुस्तक में एक और महत्त्वपूर्ण कविता है 'समय की सापेक्षता' जो समय को उम्र के अलग-अलग कोणों से देखती एक बहुत अच्छी रचना है। महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन के समय की सापेक्षता के सिद्धांत को आधार में रख कवि ने बताया है कि विभिन्न अवस्थाओं में मनुष्य का जीवन के प्रति कैसा नजरिया रहता है।
एक कविता 'बजटीय सौन्दर्य' में बजट के पक्ष-विपक्ष में अलग-अलग मतों का सफल विवेचन हुआ है। इस व्यंग्यात्मक कविता में कवि नौटियाल जी ने बजट से बड़ा ही रोचक सवाल किया है। लेकिन साथ ही 'सौन्दर्य बस देखने वाली आँखों में होता है' कहकर व्यंग्य के ज़रिये तमाम उत्सुकताओं को विराम भी दे गये हैं।
एक गीत 'भीतर से भी राम' में आज के विकट युग में जहाँ हर ओर सिर्फ स्वार्थ का बोलबाला है, ऐसे में भी कवि किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में है जो भीतर और बाहर दोनों जगह से भगवान राम की तरह हो। इस गीत के माध्यम से रचनाकार ने अप्रत्यक्ष रूप से भगवान राम के अनेक गुणों का वर्णन किया है। हालाँकि नौटियाल जी यह भी जानते हैं कि इस कलियुग में श्री राम के जैसा चरित्र मिलना असंभव है फिर भी एक साहित्यकार उम्मीद नहीं हारना चाहता।
पुस्तक में पिता-माता को याद करते हुए क्रमशः 'खेवनहार पिता' और 'आँचल का अहसास' शीर्षक की अच्छी कविताएँ हैं। पिता का होना जहाँ बरगद की छाँव समान हैं, वहीँ माँ का होना जीवन में हरियाली के होने की तरह है।
इन सबके अलावा पुस्तक में हिंदी, बाल मजदूरी, होली, राखी, नव वर्ष, दीपावली, जन्माष्टमी, वेलेंटाइन डे और ऐसे ही बहुत से विषयों पर रचनाएँ पढ़ने को मिलती हैं।
अलग-अलग विषयों और अलग-अलग विधाओं को अपने में समेटे यह पुस्तक एक अच्छी कृति बन पड़ी है। लेकिन कहीं-कहीं रचनाओं में परिपक्वता की कमियाँ भी महसूस हुईं। गीत तथा दोहे छंदों में होने के बावजूद भी अपने प्रवाह में बाधित हो रहे हैं। कठिन तत्सम शब्दों के आधिक्य से भी कई स्थानों पर बोझिलता आई है।
प्रस्तुत पुस्तक में हमारे आसपास की कई चीज़ों व कई मुद्दों पर अच्छी अच्छी रचनाएँ हैं, जो पुस्तक को पठनीय बनातीं हैं। एक सुंदर व सफल काव्य संकलन के लिए इसके रचनाकार ओमप्रकाश नौटियाल जी को हमारे समय के चर्चित कवि डॉ. कुंअर बेचैन के पुस्तक की भूमिका में लिखे इन शब्दों के साथ बहुत बहुत बधाईयाँ और भविष्य के लिए शुभकामनाएँ-
"शाश्वत होते हुए भी समसामयिक और समसामयिक होते हुए भी शाश्वत हैं नौटियाल जी की कविताएँ......"
समीक्ष्य पुस्तक- पीपल बिछोह में (काव्य संग्रह)
रचनाकार- श्री ओमप्रकाश नौटियाल
संस्करण- प्रथम, 2016
प्रकाशन- शुभांजलि प्रकाशन, कानपुर (उ.प्र.)

Friday, August 5, 2016

साझे नभ के कोने में चहचहाते हायकु के परिंदे






हायकु जापानी साहित्य की एक सुप्रसिद्ध विधा है, जो अब विश्व भर के साहित्य में स्वीकृत है। तीन पंक्तियों और कुल सत्रह (5+7+5) वर्णों की यह रचना एक पूर्ण कविता होती है। तीनों पंक्तियों में एक एक शब्द इस तरह जड़ा जाता है कि कहीं से भी किसी शब्द को हटा देने से समग्र रचना की सुंदरता ख़त्म हो जाती है। हायकु की तीनों पंक्तियाँ पृथक होती हैं और अपनी अपनी बात पूरी करती हैं। जापानी साहित्य में यह विधा प्रकृतिपरक विषयों के लिए मशहूर है लेकिन हिंदी में इस तरह की कोई बाध्यता नहीं है। हिंदी में हायकु रचनाकार इसकी शिल्पगत सीमाओं में रहते हुए किसी भी विषय पर अपनी संवेदनाएँ उकेर सकता है।
भारत को हायकु कविता से परिचित कराने का श्रेय कविवर रवीन्द्र नाथ ठाकुर को जाता है और हिंदी में इसकी प्रथम चर्चा अज्ञेय द्वारा की गयी मानी जाती है। उन्होंने छठवें दशक में ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ (1959) में अनेक हायकुनुमा छोटी-छोटी रचनाएँ लिखीं हैं, जो हायकु के बहुत निकट हैं। उसके बाद कई दशकों से अनेक हिंदी रचनाकार इस छोटी सी सशक्त विधा में अपनी भावनाएँ व्यक्त कर रहे हैं। हायकु विधा की अनेक पुस्तकें अब तक प्रकाशित हो चुकी हैं।
इसी कड़ी में पिछले दिनों विभा रानी श्रीवास्तव जी द्वारा सम्पादित हायकु के नव हस्ताक्षरों की पुस्तक ‘साझा नभ का कोना’ प्रकाशित हुई है। पुस्तक में कुल 26 रचनाकारों के परिचय सहित उनकी कुछ हायकु रचनाएँ शामिल हैं। सभी रचनाकारों द्वारा अलग अलग तय विषयों पर अपनी कलम चलाते हुए बहुत सुंदर रचनाएँ प्रस्तुत की गयी हैं।
इलाहाबाद के रत्नाकर प्रकाशन से प्रकाशित इस पुस्तक में विभिन्न सामाजिक सरोकारों के विषयों पर अच्छी रचनाएँ देखने को मिलती हैं। 
दिल में दया और आँखों में हया लेकर सारे जग को अपना बनाने की ‘ट्रिक’ समझाते कपिल कूमार जैन का बहुत सुंदर हायकु देखें-
दिल में दया
आँखों में जो हो हया
जग तुम्हारा
एक अन्य हायकु में वे रात, सपनों और सूरज का मानवीकरण करते हुए कहते हैं-
रात ने बोई
सपनों की फसल
उगा सूरज
इसी प्रकार कैलाश भल्ला जी अपने एक हायकु में रहस्यवाद का सहारा लेते हुए मन की प्यास पर लिखते हैं-
मन भटके
ज्यों पावे त्यों बढ़े
तृषा न मिटे
‘ओस’ विषय पर वे बहुत सुंदर कल्पना करते हुए वे कहते हैं-
ठण्ड के मारे
मेघ छोड़ के भागे
ओस के पारे
तुकाराम खिल्लारे जी धरती, आकाश और जीवों के एक परिवार की कल्पना कर पिता और माँ के उत्तरदायित्व को कितनी मार्मिकता के साथ प्रस्तुत करते हैं, देखें-
नभ बैरागी
झंझावात सहती
जीव संग भू
बेजान बाँसुरी के श्वासों से स्पर्श करते ही उत्पन्न मधुर ध्वनी का चित्रण करते हुए धर्मेन्द्र कूमार पाण्डेय जी कहते हैं-
श्वासों का स्पर्श
गाती बेजान बंशी
मधुर ध्वनि
हमारे दौर भी विडंबना को शब्द देता पवन बत्रा जी का हायकु क्या कुछ कह जाता है, देखिये-
बेख़ौफ़ रहे
आज के अपराधी
पीड़ित सहे

इसी तरह कटते पेड़ों की व्यथा को अपनी हायकु रचना का स्वर देते पंकज जोशी एक महत्त्वपूर्ण सरोकार को हमारे सामने रखते हैं-
चीखते पेड़
प्रार्थना इंसानों से
छोड़ो काटना
प्रबोध मिश्र ‘हितैषी’ जी अपनी रचना में दार्शनिकता का समावेश करते हुए जीवन का एक सूत्र समझाते हुए दीखते हैं-
धूप छाँव सा
ज़िंदगी का संगीत
प्रिय अप्रिय
सभी सामाजिक, धार्मिक संकीर्णता को परे रख बेटियों द्वारा हर क्षेत्र में झंडे गाड़ने के काम पर कलम चलाती प्रवीण मलिक लिखती हैं-
काट बेड़ियाँ
बेटी भरे उड़ान
बढ़ा दे मान
ओस की एक बूंद की तुलना साध्वी से करते हुए उस चित्र का बहुत सटीक चित्रण करते हुए प्रीति दक्ष जी अपनी हायकु रचना में कहती हैं-
ओस की बूंद
कमलदल बैठी
शांत साध्वी सी
पुस्तक में इसी तरह की अनेक सुंदर हायकु रचनाएँ आपको आकर्षित करेगी। साथ ही संपादक सहित कुछ अनुभवी हायकु रचनाकारों के वक्तव्य भी पाठकों की जानकारी को और समृद्ध करेंगे। पेपरबैक संस्करण में पुस्तक का प्रकाशन कार्य भी बहुत सुंदर ढंग से हुआ है। शीर्षक को सार्थकता देता पद्मसंभव श्रीवास्तव का आवरण चित्र भी मन को लुभाने वाला है।
एक अच्छी पुस्तक के प्रकाशन के लिए संपादक, प्रकाशक और सभी सम्मिलित रचनाकार बधाई के पात्र हैं।
समीक्ष्य पुस्तक- साझा नभ का कोना
विधा- हायकु संग्रह (साझा संकलन)
संपादक- विभा रानी श्रीवास्तव
संस्करण- प्रथम, 2015 पेपरबैक
मूल्य- 125 रूपये
प्रकाशन- रत्नाकर प्रकाशन, इलाहाबाद